Sunday, November 29, 2009

अपनी अपनी सोच

एक बार हम दोस्ते-दोस्ते मिल के मन्दिर गयी,वहां हमने भगवान को प्रसाद चढाया| सब अपनी मस्ती में गुम थे, वहा बैठे तमाम भिखारी को सबने प्रसाद दिया और आगे बढ़ गयी मै पीछे थी मेरी निगाह एक ऐसे भिखारी पर पड़ी जिसके हाथ नहीं था ( ऐसा नहीं था कि उनने उस भिखारी को नहीं देखा पर उसे देख कर वो बोली अरे इसके तो हाथ ही नहीं इसको प्रसाद केसे दू इसका तो कटोरा भी नहीं ये कहकर वो हंसकर आगे बढ़ गयी)मेरी निगाह उसी भिखारी पर अटक गयी मै उसके पास तक गयी उसे देखकर बोली प्रसाद ---- ये कहकर उसकी तरफ देखा उसने शाल से अपना कटा हाथ निकला जो कोहनी से थोडा ऊपर तक नहीं था मैने उसके उसी हाथ पर प्रसाद रख दिया उसने दुसरे कटे हाथ की सहायता से उस प्रसाद को अपने मुख में डाल लिया| जब तक मैंने सडक पार की वो मुझे मैं उसे देख रहे थे| उसे प्रसाद खिला कर मुझे बहुत ख़ुशी हुई मेरी दोस्ते को मैं पागल लगी ये पागल पन मुझे अभी भी याद है और अभी भी मैं ये पागल पन करती हु|

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